उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘मुसलमानी और हिन्दूपन का विवाह तो होता नहीं। हाँ, लड़के-लड़की का हो सकता है और लड़के के विचार से वह लड़का सर्वगुण-सम्पन्न है।’’
सुलक्षणा अपने मन को तैयार नहीं कर सकी। उसने पुनः लोकनाथ तथा रामदेई से इस बात का उल्लेख नहीं किया। अभी लड़की भी अठारह वर्ष की हुई थी।
एक दिन ट्रिब्यून समाचार-पत्र में छपा, ‘‘लाहौर के रईस लाला शरणदास घड़ियों वाले का पिछली रात आठ बजे दिल की धड़कन बन्द हो जाने से देहान्त हो गया है। चौथा शनिवार सायं पाँच बजे, ‘‘छोटेलाल’ के मन्दिर में होगा।’’
इस समाचार को पढ़ते ही लोकनाथ के घर में विचार होने लगा कि इस अवसर पर रामकृष्ण से शोक प्रकट करने जाया जाए अथवा नहीं? विचार होता रहा। इस कार्य में किसी की रुचि नहीं थी। नूरुद्दीन ने करीमा से भी ज़िक्र किया। उसके मन की प्रतिक्रिया यह थी कि शोक प्रकट करने जाना चाहिए।
‘‘उन्होंने कभी बुलाया तो है नहीं?’’ नूरुद्दीन ने कहा।
‘‘बुलाया जाता है खुशी के मौके पर और खुशी क्रोध को कम करती नहीं। ग़मी के मौके पर ही इन्सान, खुदा के डर से मन की सब बुराइयों को दूर करना चाहता है और उस वक्त कोई बुलाता नहीं। अच्छे आदमी स्वयं ही ऐसे मौके पर हमदर्दी महसूस कर गिरे हुओं को उठाने पहुँच जाते हैं।’’
नूरुद्दीन ने बताया कि भापा भगवानदास और लालाजी इसके हक में नहीं हैं।
|