उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
करीमा का कहना था, ‘‘उनके दिलों के ज़ख्म अभी हरे हैं। उस पर मरहम लगाना हमारा काम है।’’
करीमा रामदेई को समझाने चल पड़ी। उसकी एक ही युक्ति थी, ‘‘माताजी! मरना सबको है। मरने पर दुनिया के सब वैर-विरोध छूट जाते हैं। इससे उस फौत हुए की रूह के लिए दुआ करनी और उसकी मौत पर पीछे रह जाने वाले से हमदर्दी प्रकट करनी इंसान की आला ख्यालातों (श्रेष्ठ गुणों) का ज़हूर होता है।’’
बात रामदेई की समझ में आई तो करीमा, रामदेई और मोहिनी शोक प्रकट करने उनके घर अनारकली को चल पड़ीं।
वे गईं और माया रानी के पास जा बैठीं। उनके पास ही माला, जानकी और दयारानी बैठी थीं। वे तीनों इनको आया देख भौचक्की रह गयीं।
करीमा ने बात की, ‘‘मौसी जी! कल समाचार-पत्र में लालाजी के फौत होने की खबर पढ़ बहुत ही अफसोस हुआ है। बेचारी माला का वही तो आश्रय थे।’’
करीमा कहती गई और माया रानी आँखें नीचे किये सुनती रहीं। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। मायारानी और माला यह आशा नहीं करते थे कि लोकनाथ के घर से इस अवसर पर भी कोई शोक प्रकट करने आयेगा।
ये दो घण्टे बैठी रहीं और किसी ने इनके साथ बात तक नहीं की। कुछ देर बाद माला उठकर मकान के भीतर चली गई। रामदेई इत्यादि समझ नहीं सकीं कि किस कारण वह गई है। करीमा का विचार था कि वह उनसे इतनी नफरत करती है कि उनको वहाँ बैठा देख भी नहीं सकती।
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