उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
मोहिनी ने अर्थ-भरी दृष्टि से करीमा की ओर देखा। मगर वहाँ बिरादरी और मित्रों के घरों की बहुत स्त्रियाँ एकत्रित थीं। इस कारण वे अपने मन की बात परस्पर कह नहीं सकीं।
दो घण्टे बैठकर वे मायारानी से पुनः शोक प्रकट कर उठ आईं। बाहर उनकी मोटर खड़ी थी। वे आयीं तो मोटर के पास एक बारह-तेरह वर्ष का लड़का खड़ा था। रामदेई और करीमा का ध्यान उस ओर नहीं था। वे मोहिनी की बात पर विचार कर रही थीं। मोहिनी ने मकान की ड्योढ़ी से निकलते हुए कहा था, ‘‘करीमा बहन! क्या लाभ हुआ यहाँ आने का?’’
‘‘तुम किसी लाभ की उम्मीद लेकर आई थीं?’’ करीमा का प्रश्न था।
‘‘वाह! यही तो मैं पूछ रही हूँ? किस आशा पर आई थीं और वह पूरी हुई है क्या?’’
‘‘मैं तो सिर्फ अपने दिल की तस्कीन (शान्ति) के लिए आई थी। न कुछ लेने, न देने। वह मुझको मिल गई है।’’
इस समय वे अपनी मोटर के पास आईं तो वहाँ खड़े लड़के ने हाथ जोड़ कह दिया, ‘‘दादी माँ! नमस्ते।’’
‘‘दादी माँ।’’
तीनों उसकी ओर देखने लगीं। रामदेई ने पहचान लिया। यह भगवानदास का बिल्कुल नमूना था। तीनों भौचक्की हो, उसका मुख देखती रह गईं। करीमा ने कह दिया, ‘‘ओह, फूल!’’ उनको राधा पंडिताइन ने बताया था कि भगवानदास के लड़के का नाम फूलचन्द है। ‘‘तुम, माला के फूल हो?’’
|