उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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‘‘मैंने आपको कई बार कहा है कि मैं इस घर में नहीं रहूँगी और आप इस घर को छोड़ने की अपेक्षा इसमें पाँव पसारते जा रहे हैं?’’ माला अपने पति के गले में बाँह डाले, उसके समीप लेटे हुए कह रही थी।
‘‘क्या पाँव पसारे हैं?’’ भगवानदास ने उसको कसकर गले से लगाते हुए कहा, ‘‘घर अभी नहीं छोड़ सकता।’’
‘‘देखिए, आपने साइनबोर्ड लगवा दिया है। इसका अर्थ में समझी हूँ कि आप उस स्थान को अपने होने वाले रोगियों में विख्यात कर रहे हैं।’’
‘‘बोर्ड लगवाया है नूरुद्दीन के वालिद खुदाबख्श ने।’’
‘‘आपके सब काम तो खुदाबख्श और नूरुद्दीन ही करते हैं। उस दिन हीरे की अँगूठी का दाम भी नूरुद्दीन ने ही दिया था। अब बोर्ड उसके बाप ने लगवा दिया है। कल को कहेंगे, यह मकान नूरुद्दीन के बाप ने बनवा दिया है। मैं यही जानना चाहती हूँ कि आपने क्या किया है?’’
‘‘मैंने एक बात की है। वह है, लाला शरणदास की लड़की माला को डोली में डालकर घर ले आया हूँ। क्या यह कम बहादुरी की बात है?’’
‘‘बस बीवी को पकड़, उसका मलीदा कर दिया। बहुत बहादुरी हो गई। देखो जी! मेरी माँ कहती है कि मेरी बहन जानकी के दिन चढ़ गए हैं।’’
‘‘बहुत खुशी की बात है।’’
‘‘और मैं।’’
‘‘तुम्हारी तुम जानो।’’
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