उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मुझको सन्देह हो रहा है कि कुछ आप में दोष है।’’
‘‘होगा!’’ भगवानदास की अपनी पत्नी को पकड़ ढीली पड़ गई थी। उसको सन्देह हो गया था कि वह आज फिर लड़ने वाली है।
विवाहित जीवन में कई बार पहले भी लड़ाई हो चुकी थी। एक बार ससुराल से आए सामान में से बहन मोहिनी को दो साड़ी, जम्पर और सोफासेट देने के समय झगड़ा हुआ था। साड़ियाँ आदि देने के समय तो भगवानदास ने माला को समझाया था कि उसकी माँ ने उसको पन्द्रह, एक से एक बढ़िया, साड़ियाँ दी थी। दस उसकी सास ने ले दी थीं। इन पच्चीस में से दो ही तो दी जा रही थीं। तब माला ने कहा था, ‘‘माँ जी अपनी साड़ियों में से दे दें। मेरी माँ की दी हुई में से न दें।’’
‘‘माला! तुमको तो हानि होगी नहीं। मोहिनी के घर में तुम्हारी माँ की साड़ियों में से दी जाएँगी तो तुम्हारी माँ की शोभा होगी। हम तो मोहिनी को नित्य कुछ-न-कुछ देते ही हैं।’’
‘‘पर मैं विचार करती हूँ कि उसका क्या हक़ है मेरी माँ से मिले सामान पर? आप मेरा सोफासेट भी तो दे रहे हैं?’’
‘‘वह इसलिए कि उसको घर पर रखने का स्थान नहीं। नीचे बैठक में दो सोफासेट पहले ही रखे हैं। इसके वहाँ टिका तो दिया है, मगर कमरा सामान से लद-सा गया है।’’
‘‘इसी से तो कह रही हूँ, कोई बड़ा-सा मकान लीजिए। आपके पिताजी को कुछ तो ख्याल करना चाहिए था कि किन के साथ सम्बन्ध बनाने लगे हैं? उनके यहाँ से मिले दहेज को रखने के लिए, मकान तो बनवा लेना चाहिए था।’’
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