उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
उस दिन का झगड़ा तो दो रात-भर पति-पत्नी के पृथक्-पृथक् सोने पर और माला के एक सप्ताह के लिए माँ के घर चले जाने पर समाप्त हुआ था। भगवानदास ने माँ को बता दिया था कि माला अपनी माँ के घर का सामान मोहिनी को देना पसन्द नहीं करती। तब लाला लोकनाथ ने बाज़ार से दो सूट का कपड़ा और एक सौ रुपया देकर मोहिनी को विदा कर दिया था।
जब माँ के घर रहते हुए माला को पता चल गया कि उसकी साड़ियाँ और सोफासैट नहीं दिए गए तो वह ससुराल लौट आई थी।
आज फिर कुछ ऐसा ही अवसर आ गया था। भगवानदास को बिच्छू के डंक मारने के समय होने वाली पीड़ा के समान अनुभव हुआ। उसने कुछ तनकर कहा, ‘‘क्या दोष हो सकता है?’’
‘‘आप डॉक्टर हैं। आपको पता होना चाहिए।’’
‘‘ठीक है। मैं अपना और तुम्हारा दोनों का टैस्ट करवाता हूँ। जिसके दोष होगा, उसकी चिकित्सा हो जाएगी।’’
‘‘मुझमें तो कोई दोष प्रतीत होता नहीं। मैं तो एक औरत की भाँति ठीक हूँ।’’
‘‘यही तो देखना है?’’
‘‘यह कैसे देखा जाएगा?’’
‘‘कल मेरे साथ हस्पताल चलना। वहाँ लेडी डॉक्टर बताएगी कि किस कारण से तुम्हारे अभी तक सन्तान नहीं हुई?’’
‘‘मैं तब तक नहीं जाऊँगी, जब तक आप कॉलेज के सरकारी बंगले में नहीं चले जाते।’’
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