उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘फोकट में एक सौ रुपया भाड़े में चला जाएगा। माता-पिता से पृथक रहोगी तो रोटी, नौकर-चाकर का खर्च भी दुगुना हो जाएगा। यह नहीं हो सकता।’’
‘‘परन्तु यहाँ रोटी का कुछ नहीं देना पड़ता क्या?’’
‘‘देता हूँ। अभी तक डेढ़ सौ मिलता था। उसमें से पचास रुपए माँ को घर के खर्च के लिए देता था। अब अगले मास से पाँच सौ मिलेंगे तो डेढ़ सौ पिताजी के देने का विचार है।’’
‘‘डेढ़ सौ? इतना किसलिए?’’
‘‘मैं चाहता हूँ कि घर में रहते हुए घर का पूरा खर्च मैं दिया करूँ।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘इसलिए कि पिताजी तेईस साल तक सब खर्च देते रहे हैं। अब कम-से-कम तेईस साल तक मैं उनका सब खर्च दे दिया करूँ।’’
‘‘और, वे जो कमाते हैं?’’
‘‘उसका वे जो उनके मन में आए वे करें।’’
‘‘यह तो बिलकुल बेहूदा है।’’
‘‘कुछ भी हो माला! अब सो जाओ। मुझको बहुत सुबह उठकर कॉलेज का लेक्चर तैयार करना है।’’ यह कह वह लपककर अपने पलंग पर चला गया।
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