उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
क्रोध से आगबबूला हो माला करवट बदलकर सोने का यत्न करती रही। भगवानदास तो पन्द्रह मिनट के भीतर सो गया लेकिन माला रात-भर जागती रही। दिन चढ़ने लगा तो उसे नींद आ गई। भगवानदास उठा और अपने पढ़ने-लिखने के कमरे में चला गया। वह पाँच बजे से आठ बजे तक वहाँ बैठकर काम करता रहा। तदनन्तर स्नानादि से निवृत्त हो, रसोई-घर में भोजन करने चला गया। भोजन माँ बना रही थी। उसने माँ को बताया–
‘‘माला आज माँ के घर जाना चाहेगी।’’
‘‘अभी कल तो आई है?’’
‘‘वह यह कहने आई है कि अब मैं प्रोफेसर बन गया हूँ। मुझको शहर से बाहर मकान लेकर रहना चाहिए।’’
‘‘और तुम भी उसके साथ ही रहने जा रहे हो?’’
‘‘नहीं माँ। अभी नहीं। अभी तो इस इतवार को मेरी नौकरी लगने की दावत हो रही है।’’
‘‘कहाँ होगी दावत?’’
‘‘यहीं, इस मकान पर।’’
‘‘कितना रुपया खर्च करोगे?’’
‘‘जितना भी हो जाए।’’
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