उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘देखो भगवान! अपनी चादर देखकर पाँव पसारो। बीवी धनियों की बेटी है। उसके अपने माता-पिता के घर की बातें यहाँ नहीं चल सकेंगी। सुना है, वे पुरानी अनारकली के आगे एक कोठी बनवा रहे हैं। उनके लिए लाख-दो-लाख रुपया खर्च कर देना साधारण बात है। तुम पहले अपनी हैसियत उत्पन्न करो। उसके बाद जो मन में आए करना।’’
‘‘माँ! अमीरों की लड़की घर में लाकर गलती हो गई है।’’
‘‘मुझको भी कुछ यही अनुमान हो रहा है। पर बेटा, थूककर चाटा नहीं जा सकता। अब जो हो गया सो हो गया। अब तो उसको समझाओ। आखिर तुम्हारे इतना पढ़ने-लिखने का क्या लाभ होगा अगर तुम उस नौंवी-दसवीं श्रेणी तक पढ़ी को समझा नहीं सकते।’’
‘‘समझने के लिए ही उसको माँ के घर जाने की छूट दे रखी है।’’
‘‘यह कैसे? इससे तो वह बिगड़ेगी, सुधरेगी नहीं।’’
‘‘माँ! बड़ी जमातों में औरतों के समझाने का यह भी एक तरीका बताया जाता है। भूल करने वाले को सीमा से अधिक भूल करने का अवसर दिया जाए। जब वह अपने को बहुत कठिनाई में डाल ले, तब उसको मुश्किल से निकालकर ठीक मार्ग पर ले आया जाए।’’
‘‘परन्तु इससे पहले समझाना तो चाहिए।’’
‘‘रात-भर समझाता रहा हूं। देखो माँ! तुम उसको छोड़ने मत जाना। हाँ, वह जाना चाहे तो पंडिताइन के साथ भेज देना।’’
माँ ने कुछ उत्तर नहीं दिया। भगवानदास ने भोजन समाप्त किया और कपड़े पहन कॉलेज जाने की तैयारी करने लगा। उस समय माला अँगड़ाइयां लेती हुई उठी। दीवार पर टँगी घड़ी में समय देखकर बोली, ‘‘अब तो नौ बज रहे हैं?’’
|