उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘हाँ, मुझे दस बजे क्लास लेनी है। मैं जा रहा हूँ।’’
‘‘मैं माँ के घर जानेवाली थी।’’
भगवानदास का अनुमान ऐसा ही था। फिर भी उसने कहा, ‘‘अभी कल ही तो आई हो?’’
‘‘मैं किसी लेडी डॉक्टर को दिखाने जा रही हूँ।’’
‘‘ठीक है! मैंने माँ से कह दिया है। वह पंडिताइन को तुम्हारे साथ भेज देंगी।’’
‘‘तो पहले से ही मुझको घर से निकालने का प्रबन्ध कर रखा था।’’
‘‘तो मत जाना। मैंने तुमको जाने के लिए नहीं कहा।’’ इतना कह, वह पढ़ने के कमरे में से अपनी पढ़ाने की फाइलें लेकर, बाईसिकल निकाल चल दिया।
रामदेई ने अपने पति से भगवानदास की बात बताई तो लोकनाथ ने कह दिया, ‘‘हमको लड़के और बहू की बातों में दखल नहीं देना चाहिए।’’
‘‘और जो-कुछ भी बेहूदगी वे करें, उसको देखते रहना चाहिए।’’
‘‘देखो रामो! मेरी यह धारणा है कि माता-पिता को बच्चों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बना देना चाहिए। बस! फिर जहाँ चाहें वे जाएँ; जैसे चाहें, वे रहें; जो चाहें खाएँ और जो चाहें पहनें।’’
रामदेई तो स्कूल-कॉलेज में पढ़ी नहीं थी। इस कारण चुप रही। मोहिनी भी आज ससुराल जाने वाली थी। वह भोजन करने आई तो माँ से कहने लगी, माँ! मैं आज जाऊँगी।’’
‘‘हाँ, मैं छोड़ने जाऊँ। या तुम्हारी सास लेने आयेगी?’’
|