उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘वहाँ से कोई आयेगा।’’
‘‘तो ठीक है। तैयार रहना, उसे रोटी पानी पूछना तब जाना।’’
‘‘आज फिर भाभी-भैया में झगड़ा हुआ है?’’
‘‘कैसे कहती हो, यह?’’
‘‘भाभी पिताजी को उनके कमरे में बैठकर बता रही हैं।’’
इससे मां अवाक् मोहिनी का मुख देखती रह गई। मोहिनी ने कहा, ‘‘एक दिन मैं उनके पिताजी से कुछ कहने गई थी तो उन्होंने मुझसे कह दिया था कि मुझको अपनी माताजी से कहना चाहिए। मेरे विषय में माताजी सब कुछ कर देंगी।’’
‘‘तुम किस विषय में अपने श्वसुर से कहने गई थीं?’’
‘‘हमारे सोने के कमरे में कोई अलमारी नहीं थी।’’
‘‘तो अपने घरवाले से क्यों नहीं कहा?’’
‘‘वे कहते थे कि उस समय पिताजी का हाथ तंग है। और मैं उनको अपनी एक अँगूठी बेच, अलमारी खरीदने के लिए कहने गई थी।’’
‘‘तो फिर बेच डाली अँगूठी?’’
‘‘नहीं; मैंने पिताजी से कहा तो उन्होंने मेरी अँगूठी मुझे वापस दे दी और दो-तीन दिन बाद अलमारी आ गई थी।’’
‘‘यह माला कुछ मूर्ख मालूम होती है।’’
‘‘माँ! उसको समझाना चाहिए।’’
‘‘मैं कैसे कह सकती हूँ। एक डॉक्टर की बीवी को एक क्लर्क की बीवी भला क्या सीख दे सकती है?’’
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