उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
मोहिनी की सास उसे लेने आई। जब मोहिनी को विदा किया गया तो माला आ गई और कहने लगी, ‘‘मैं जा रही हूँ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘जहाँ आपका पुत्र मेरे जाने की बात कह गया है।’’
‘‘वह कह गया है कि तुम जाना चाहो तो मैं तुम्हारे साथ पंडिताइन को भेज दूँ।’’
‘‘हाँ माताजी, उसको बुला दो। मैं कपड़े पहनकर तैयार हो रही हूँ।’’
‘‘भोजन तो कर लो।’’
‘‘क्या जाने आपने बनाया हुआ है या नहीं? मोहिनी की सास आई थी उसको भी तो आपने खिलाया है न?’’
‘‘मैंने उसके और मैहिनी के साथ बैठकर खा लिया है। तुम्हारे लिए रखा है।’’
‘‘खिलाना होता तो मुझको भी बुला लेतीं।’’
‘‘मगर तुम तो उस समय नहा रही थीं। तुम्हारी बात हुई थी। मुझको झूठ बोलना पड़ा था कि तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं इसलिए तुम देरी से उठी हो।’’
‘‘अब खाना माँ के घर जाकर खाऊँगी।’’
घर में चौका-बासन के लिए एक लड़का रखा हुआ था। उसका नाम था साधू। रामदेई ने साधू को भेज पंडिताइन को बुला लिया। राधा आ गई और माला की कपड़ों की गठरी उठा, उसको माँ के घर ले चली।
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