उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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राधा ने चलते हुए पूछ लिया, ‘‘बहू! अभी तुम कल तो आई थीं।’’
‘‘हाँ, ताई!’’
‘‘और आज फिर जा रही हो?’’
‘‘मेरे माँ-बाप ने अपनी लड़की इन कंगालों के घर में देकर भारी भूल की है।’’
‘‘क्यों? किस बात की कमी है तुमको?’’
‘‘इनके पास है ही क्या? सोने तक को पलंग तो है नहीं।’’
‘‘परन्तु माँ ने दो पलंग जो दिए थे, वे क्या हुआ?’’
‘‘अभी तो हैं मगर वे भी अपनी लड़की को देने का विचार कर रहे हैं।’’
‘‘ओह! और अपनी बहू के लिए?’’
‘‘फर्श पर चटाई जो है।’’
राधा जानती थी कि रामदेई हाथ की बहुत ‘सखि’ है। मुहल्ले-भर के सब यजमानों से अधिक दान-दक्षिणा देती है। वैसे ही वर्ष में एक बार उसको और उसकी बहू के कपड़े बनवा देती है। इससे इस बात का उसे विश्वास नहीं आया। मगर वह एक बात जानती थी कि सड़के दूसरी ओर रहने वाला मिस्त्री देखते-देखते लखपति हो गया है। अब तो भगवानदास भी उसके घर में घुसा रहता है। खुदाबख्श की पतोहू बहुत ही सुन्दर है और वह इनके घर में आती-जाती है। इस सब की पृष्ठभूमि में राधा को बाप-बेटा दोनों के चरित्र पर सन्देह हो गया था और बहू के दुखी होने की बात दूसरे ही ढंग पर समझने लगी थी।
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