लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


राधा ने करीमा को देखा था और अब अपने साथ-साथ चलती हुई माला को भी देख रही थी। उसको करीमा स्वर्ग की अप्सरा लगती थी और यह किसी कहार की लड़की। सूरत-शक्ल बहुत ही साधारण थी।

राधा ने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘बहू! पति-सुख की बात कहो। वह भी प्राप्त हो अथवा नहीं?’’

माला को राधा की बात स्मरण आ गई, जो विवाह से पूर्व, वह उसकी माँ को तथा उसकी भाभी दयारानी को बता रही थी। वह परदे के पीछे छुपी हुई इन सबकी बातें सुन रही थी। अब उसका ध्यान कर उसने कह दिया, ‘‘बाप-बेटा दोनों ही शौकीन हैं। दोनों अच्छे औहदे पर हैं। खूब कमाते हैं और भगवान जाने किन-किन को दे आते हैं?’’

‘‘क्या देखा है, इनका तुमने?’’ स्त्री-सुलभ स्वभाव से राधा ने दूसरों के रहस्य की बात जानने की इच्छा से पूछ लिया।

माला अपने पति के रात वाले व्यवहार से जली-भुनी हुई थी। इसलिए कहने लगी, ‘‘ताई! कहते लज्जा लगती है। किसी हिन्दू के घर में किसी मुसलमान औरत का इतना चलन मैंने कहीं नहीं देखा।’’

‘‘ओह!’’

‘‘वह छोकरी करीमा तो ऐसे आती है, जैसे घर में ही किसी की सौत हो।’’

‘‘छोकरी!’’ पंडिताइन मन-ही-मन मुसकरा रही थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book