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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


दो बच्चों की माँ करीमा को माला छोकरी का नाम दे रही थी।

‘‘हाँ, दाल में कुछ काला मालूम तो होता है। मुहल्ले में चर्चा भी है।’’

माला ने आगे कहा।

पंडिताइन ने और अधिक जानने के लिए कह दिया, ‘‘देखो! मैं तुमको एक बात बताती हूँ।’’ पंडिताइन ने कुछ सोचकर धीरे-धीरे बताना आरम्भ कर दिया, ‘‘भगवान तब तक पैदा नहीं हुआ था। खुदाबख्श मामूली मिस्त्री का काम करता था। डेढ़-दो रुपये रोज़ का कारीगर था। कई बार खाली भी रहता था। तब उसकी बीवी लोकनाथ के घर में आती-जाती थी। नूरे का जन्म हुआ तो मुझको शक हुआ कि वह हिन्दू की औलाद है। भगवान नूरे से तीन-चार महीने बड़ा है।

‘‘परमात्मा की कुदरत, दोनों बच्चे इकट्ठे खेलते और पढ़ते हुए बड़े हुए। नूरे की पढ़ाई और खाने-पहनने का खर्च लोकनाथ ही देता था। दोनों बच्चे परस्पर भाई-भाई की तरह बर्ताव करते हैं।’’

‘‘यह भी सुना जाता है कि खुदाबख्श लोकनाथ के रुपये से ही व्यापार करता है और लखपति हो रहा है। नूरे के विवाह के बाद ही यह हुआ है।’’

‘‘पर बेटी! जो जिसके भाग्य में है, वह उसको मिलता है। तुम्हारी सास बेचारी बहुत ही धर्मात्मा और साधु स्वभाव की औरत है। वह ही है, जिसके कारण बाप-बेटे की करतूतों पर परदा पड़ा हुआ है।’’

शरणदास का मकान आया तो ये दोनों माला की माँ के सामने जा खड़ी हुईं। मायारानी लड़की को देख, विस्मय में खड़ी रह गई। उसने पूछा, ‘‘माला! क्या हुआ है?’’

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