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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


माला की आँखों से आँसू ढुलकने लगे थे। उसने उत्तर देने के स्थान पर माँ के गले लगकर रोना ही ठीक समझा।

माला ने माँ को कुछ नहीं बताया। राधा ने जैसा कुछ समझा था, वैसा माला की माँ को बता दिया। उसका कहना था, ‘‘बिटिया बेचारी बहुत दुखी मालूम होती है। बहन माया! यह उस घर में सुखी नहीं रह सकती, जहाँ मुसलमानों का आना-जाना बना रहेगा।’’

राधा तो अपनी सम्मति देकर चली गई, परन्तु माला के माता-पिता को लड़की के दुख की कल्पना होने लगी और वे इस दुख को दूर करने का उपाय करने लगे।

भगवानदास विवाह के उपरान्त प्रायः रविवार को अपनी ससुराल चला आया करता था। उस रविवार को तो उसके घर में दावत थी। दावत का निमन्त्रण-पत्र भी नूरुद्दीन की ओर से निकला था। उसमें उसने लिखा था, ‘‘नीचे हस्ताक्षर करने वाला आपको रविवार तारीख ९, सायं साढ़े चार बजे, चाय पर निमन्त्रण देता है, जिससे डॉक्टर भगवानदास एम.बी.बी.एस. को मैडिकल कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त किए जाने पर बाधाई दी जा सके। आपसे सविनय प्रार्थना है कि आप इस अवसर पर पधारें और इस बधाई के उपक्रम में सम्मिलित होने की कृपा करें–नूरुद्दीन ठेकेदार।’’

भगवानदास तीन निमन्त्रण-पत्र लेकर अपनी ससुराल जा पहुँचा। शरणदास तब तक दुकान पर नहीं गया था। वह स्नानादि से निवृत्त हो प्रातः का अल्पाहार कर रहा था। रामकृष्ण तो मध्याह्न का खाना खाकर एक बजे दुकान पर जाया करता था। तब उसका पिता घर आ जाता था और डेढ़ बजे, मध्याह्न का भोजन किया करता था।

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