लोगों की राय

उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

350 पाठक हैं

मैं न मानूँ...


इस प्रकार पिता-पुत्र दोनों घर पर मिल गए। भगवानदास ने नमस्कार की तो शरणदास ने उसको अल्पाहार करने के लिए कह दिया। भगवानदास ने कह दिया, ‘‘आज मुझको घर पर जल्दी लौटना है। कारण यह है।’’ उसने निमन्त्रण-पत्र जो शरणदास के नाम का था, लिफ़ाफे से निकालकर सामने रख दिया।

‘‘क्या है यह?’’

‘‘नूरुद्दीन ने मेरी सरकारी नौकरी लगने के उपलक्ष में आज चाय-पार्टी दी है। आपको उसमें सम्मिलित होना चाहिए।’’

‘‘तो तुमको नूरुद्दीन के अतिरिक्त अन्य कोई पार्टी देने वाला मिला ही नहीं?’’

‘‘पिताजी! जिसके पास रुपया खर्च करने को है, वही तो खर्च कर सकता है।’’

‘‘तो क्या तुमको मैं कंगला दिखाई देता हूँ?’’

‘‘परन्तु अपने को बधाई देने के लिए मैं भीख माँगता-फिरता? पिताजी! यह तो मन का सौदा है। आपको तो मैंने पिछले रविवार ही बताया था कि मुझको पक्की नौकरी मिल जानी निश्चित है, प्रिंसिपल ने मुझको कह दिया है और मैं नियुक्ति-पत्र की प्रतीक्षा में हूँ। फिर माला ने भी आपको बताया होगा। नियुक्ति-पत्र तो सोमवार को ही मिल गया था। माला यहाँ मंगल के दिन आई थी।’’

‘‘देखो बेटा!’’ शरणदास ने कहा, ‘‘माला ने बताया था और यह भी बता दिया था कि नूरुद्दीन तुमको दावत दे रहा है। उसने नूरुद्दीन के दावत देने का रहस्य भी बता दिया है। इसी ज्ञान के आधार पर मैं कहता हूँ कि मैं नहीं आऊँगा। मेरी बधाई तुम अभी ले जाओ।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book