उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘क्या रहस्य बताया है उसने नूरुद्दीन के पार्टी देने का?’’
‘‘यही कि वह तुम्हारा सगा भाई है और नुरुद्दीन का बेटा मुनव्वर तुम्हारा सगा पुत्र है।’’
भगवानदास खिलखिलाकर हँस पड़ा। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘और इसीलिए, वह रूठकर यहाँ चली आई है?’’
‘‘वह कहती तो यही है।’’
‘‘बात ठीक हो तो भी रूठने की क्या ज़रूरत थी? किसी के पास दो पैसे होते हैं तो वह उसको बाँट सकता है। हमारी माँ को तो इस बात का न ज्ञान हुआ प्रतीत होता है और न ही उसको अपने को मिलने वाले प्रसाद की कभी कमी अनुभव हुई है। आखिर मैं भी तो बाप का बेटा हूँ। इसी प्रकार आपकी लड़की के भी कभी सन्तान हो जाती।’’
‘‘बेटा! विवाह को दो साल हो रहे हैं। अभी तो कुछ लक्षण दिखाई दिये नहीं।’’
‘‘परन्तु पिताजी! वे लक्षण यहाँ बैठे तो प्रकट होंगे नहीं। उसको तो मेरे घर में चलकर रहना चाहिए।’’
‘‘तो अपनी बीवी से बात कर लो। वह तुम्हारे घर जाएगी तो मैं भी तुमको बधाई देने चला आऊँगा।’’
शरणदास उठ खड़ा हुआ और दुकान जाने के लिए कपड़े पहनने चला गया। भगवानदास का चित्त नहीं कर रहा था कि वह माला से मिले। अपने पिता पर और अपने पर यह लाँछन सुनकर तो उसको भी क्रोध आने लगा था। वह भी खाने के कमरे से उठकर बाहर आया तो रामकृष्ण की पत्नी और माला अल्पाहार के लिए वहाँ आ पहुँचीं। रामकृष्ण की पत्नी दयारानी ने हाथ जोड़ नमस्कार की और कह दिया, ‘‘जीजाजी, आइये न नाश्ता करिए?’’
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