उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘आइये बैठिए तो। वे भी आ रहे हैं।’’
भगवान पुनः खाने के कमरे में चला गया। वह अभी बैठा ही था कि रामकृष्ण आ गया। भगवानदास ने जेब से उसके नाम का निमन्त्रण-पत्र निकालकर दे दिया। रामकृष्ण ने पढ़ा तो कह दिया, ‘‘ठीक चार बजे तो आ नहीं सकूँगा।’’
‘‘चार बजे से रात के बारह बजे तक जश्न का प्रबन्ध है। जब भी अवकाश मिले, आ जाइए। पाँच बजे से चाय आरम्भ होगी। साढ़े पाँच बजे मदारी के खेल होंगे। साढ़े छः बजे से मास्टर मोहन का गाना होगा। आठ बजे से भोजन होगा और फिर साढ़े नौ बजे से रात के बारह बजे तक मुन्नीबाई का नाच और गाना होगा।’’
‘‘ओह! बहुत बड़ा जश्न किया जा रहा है?’’
‘‘यह सब-कुछ नूरुद्दीन कर रहा है।’’
‘‘मैं किसी समय आऊँगा।’’
‘‘और एक काम मेरा कर दीजिए। यह निमन्त्रण-पत्र भाई साहब कृष्णगोपाल को दे दें और माला! भाभी और बहन जानकी को तुम लेकर चली आना।’’
‘‘मैं नहीं आ रही।’’
रामकृष्ण हँस पड़ा। भगवानदास भी हँस पड़ा। हँसते हुए भगवानदास ने कहा, ‘‘भाई साहब को तो नूरुद्दीन का निमन्त्रण आया है। मगर तुमको, भाभी और बहन जानकी को मैं निमन्त्रण दे रहा हूँ। मेरा तो निमन्त्रण अस्वीकार नहीं करना चाहिए।’’
|