उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘वही तो अस्वीकार कर रही हूँ।’’
‘‘भैया! यह आएगी। आप चिन्ता न करें। दयारानी इसको साथ लेकर ही आएगी। नहीं तो उनको आपके घर का रास्ता कौन बताएगा?’’
सायं दावत पर रामकृष्ण, दयारानी, कृष्णगोपाल और जानकी तो आए मगर शरणदास, मायारानी और माला नहीं आई। भगवानदास का विचार था कि आएँगे तो सब आएँगे। अन्यथा कोई नहीं आएगा। परन्तु आधे परिवार के आने से तो उसको विचार करने की सामग्री मिल गई। वे सब रात के सात बजे आए थे। उस समय मास्टर मोहन गा रहा था। बीस के लगभग शौकीन बैठ सुन रहे थे। कुछ लोग चाय पीने के बाद चले गए थे। कुछ खाना खाने के लिए आ रहे थे।
रामकृष्ण और कृष्णगोपाल अपनी पत्नियों के साथ आए तो भगवानदास ने उठकर उनका स्वागत किया। रामकृष्ण और गोपाल को ले जाकर उसने नूरुद्दीन और कॉलेज के एक सहयोगी प्रोफेसर घोष के पास बैठा दिया। स्त्रियाँ भीतर रामदेई के पास चली गईं।
रामदेई ने जानकी और दयारानी को अपने पास बैठा लिया। प्रोफेसर घोष की पत्नी नीला और मुहल्ले की दो स्त्रियाँ पहले ही वहाँ बैठी थीं।
रामदेई ने दयारानी से पूछा, ‘‘माला नहीं आई?’’
‘‘नहीं! उसने तो हमको भी आने से मना किया था मगर हमको यह उसकी मूर्खता प्रतीत हुई। मौसी! एक बात करो। उसको पृथक् कर दो।’’
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