उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
|
350 पाठक हैं |
मैं न मानूँ...
‘‘पृथक्! यहाँ क्या कष्ट है उसको?’’
‘‘आज-कल की लड़कियाँ हैं न। उनको अपनी आयु से बड़ी स्त्रियों की संगति भाती नहीं।’’
‘‘मगर उसने मुझको कभी कहा नहीं कि वह पृथक् होना चाहती है। मुझको तो इस बात में कभी भी आपत्ति नहीं हो सकती थी। अपने घर वाले को मना ले। वह मान जाए तो जहाँ चाहे चली जाए।’’
‘‘यही तो कठिनाई है। उसने जीजाजी से कहा था और वे माने नहीं। उसका विचार है कि वे अपने दोस्त नूरुद्दीन की बीवी को छोड़कर नहीं जाएँगे। हमको तो किसी तरह का सन्देह मालूम नहीं होता। मगर वह अभी बच्ची है न, उसके मन में न जाने कैसे यह बात बैठ गई है कि लाख यत्न करने पर भी नहीं निकलती।’’
‘‘देखो बेटी दया! मैं अपने पुत्र को पृथक् होने के लिए नहीं कह सकती। कोई भी माँ यह नहीं कह सकेगी। हाँ, पत्नी अपने पति को समझा-बुझा सकती है। वह समझा ले। जिस दिन वे दोनों एक मन होकर यह कहेंगे कि वे जाना चाहते हैं तो मैं सत्य हृदय से कहती हूँ कि मैं उसको मना नहीं करूँगी। जाने के समय उनको आशीर्वाद दूँगी।’’
इसमें दयारानी को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। वह जानती थी कि जब भगवानदास बाप को घर छोड़ने को कहेगा तो फिर उसको कौन मना कर सकता है? वे घर से यही योजना बनाकर आए थे कि डॉक्टर के माता-पिता को समझाया जाए कि वे आपत्ति न उठाएँ। जब उनके मुख से इतना निकल जाए तो फिर डॉक्टर को समझाने-बुझाने का यत्न किया जाए।
|