उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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बाहर समय पाकर रामकृष्ण नूरुद्दीन को कह रहा था, ‘‘भाई, तुमने डॉक्टर के लिए बहुत खर्च कर दिया है?’’
‘‘यह तो कुछ नहीं। हमारी साझेदारी इससे कहीं दूर की है।’’
‘‘हाँ, लोग कहते हैं कि आप और भगवानदास भाई-भाई ही हैं।’’
‘‘कम-से-कम मैं तो ऐसा ही मानता हूँ। लालाजी ने ही हमारी परवरिश की है। अब्बा महीने में पन्द्रह दिन काम पाते थे और डेढ़-दो रुपए से अधिक कमा नहीं सकते थे। वे बताते हैं कि कभी लाला लोकनाथ से कुछ माँगा तो उन्होंने इन्कार नहीं किया। अगर वे देते नहीं तो अब्बा भूखों मर जाते। माँ बेवा हो जाती और न नूरुद्दीन पैदा होता और न ही यह मज़े पा सकता जो अब उसको मुहय्या हैं।’’
‘‘मैं सातवीं जमायत तक तो यह जान ही नहीं सका कि मेरी माँ और भगवान की माँ दो हैं। उन दिनों अब्बा के मन में आया कि छोटी-मोटी ठेकेदारी मिल जाए तो हालत सुधर जाए। उन्होंने भगवान के वालिद से बात की। उन्होंने उनकी वाकफ़ियत एक बड़े ठेकेदार से करा दी। काम मिला। एक हज़ार रुपया चाहिए था। वह भी भगवान के वालिद ने दिया। काम चल निकला और अब हम लाखों के ठेके लेते हैं। बैंक में हमारी हुण्डी चलती है। इस वक्त पाँच सौ राजगीर और मज़दूर हमारे काम पर लगे हुए हैं।’’
रामकृष्ण ने कह दिया, ‘‘तो भई तुमने भगवान को अपने साथ काम पर क्यों नहीं लगा लिया? इस प्रोफेसरी की नौकरी में क्या रखा है?’’
‘‘अपना-अपना विचार है। जब हमने मैट्रिक की परीक्षा दी थी तो इस बात का ज़िकर आया था। मेरे वालिद साहब ने हम दोनों को काम में लगा देने की तज़वीज़ की थी, मगर लालाजी नहीं माने। वे कहते थे कि व्यापार करना उनके खून में नहीं है। वे नौकरी ही करेंगे।’’
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