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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘नूरुद्दीन भैया! एक बात मैं कहूँ?’’

‘‘हाँ कहिए।’’

‘‘किसी तरह अपने दोस्त को समझाओ कि वह पृथक् मकान लेकर रहना शुरू कर दे।’’

‘‘क्यों? भाभी को कुछ तकलीफ है, लालाजी के घर में?’’

रामकृष्ण गम्भीर हो गया और चुप रहा। नूरुद्दीन उसके मुख को देखता रहा। रामकृष्ण को चुप देख, नूरुद्दीन ने पूछ लिया, ‘‘रामकृष्णजी, क्या बात है? भाभी ने क्या कुछ बताया है?’’

‘‘अगर तुम यह बात अपने मन में रख सको तो बताऊँ?’’

‘‘हाँ! किसी को नहीं बताऊँगा।’’

‘‘खुदा को हाज़र-नाज़र समझकर वायदा करो कि नहीं कहोगे?’’

‘‘भाई कह जो दिया, किसी से नहीं कहूँगा।’’

‘‘मुझको इस बात पर विश्वास नहीं। मैं समझता हूँ कि यह माला का वहम ही है। फिर भी यह बात उसके दिमाग में घुस गई है। उसके निकालने का उपाय यही है कि डॉक्टर अपने वालिद साहब से पृथक् हो जाएँ।’’

‘‘उसने बताया है कि लाला लोकनाथ उससे मोहब्बत करना चाहते हैं। वे समझते हैं कि माला बाप-बेटा दोनों की खवाहशात को पूरी करती रहेगी।’’

‘‘भगवान जाने, इसमें कितनी सचाई है! मगर बात की डुग्गी पीटने से भारी बदनामी हो जाएगी। बाप-बेटे में ठन जाएगी और जिन्दगी बदमज़ा हो जाएगी।’’

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