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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


‘‘यह हम समझदार आदमियों का काम है कि इस मामले को दबा दें और इसके फैलने के लिए कोई मौका ही पैदा न होने दें। मैं समझता हूँ कि आप इस परिवार के साथ इतना गहरा ताल्लुक रखते हैं और अगर आप ठीक तरीके से कोशिश करें तो जहाँ दोस्त की जिन्दगी तबाह होने से बचा सकेंगे वहाँ लाला लोकनाथ के लिए भी आप अपना फर्ज़ अदा कर सकेंगे।’’

लाला लोकनाथ शौकीन आदमी तो था ही, नाच-गाने का भी उसको बहुत शौक था। नूरुद्दीन जानता था कि जब से उसकी हालत महकमा पी.डब्ल्यु.डी. में जाने से सुधरी थी, वह एक आध ‘पेग’ ह्विस्की का भी लेने लगा था। इससे नूरुद्दीन के मन में वह बात, जो रामकृष्ण ने बताई थी, बिलकुल असम्भव तो प्रतीत नहीं हुई। किसी समय भी मन की दुर्बलता से वह कुछ हाथ बढ़ा बैठे हों, ऐसा हो सकता है। इसलिए वह रामकृष्ण की तज़वीज़ पर गौर करने लगा।

उसे चुप और विचार-मग्न देख रामकृष्ण ने कह दिया, ‘‘भाई नूरुद्दीन! मेरी और मेरी बहन की इज्जत तुम्हारे हाथ में है। यह बात मैं तुमको इसीलिए बता सका हूँ कि मैं तुमको डॉक्टर का दिली दोस्त मानता हूँ। तुमने मुझको वचन दिया है कि इस बात को होंठों से नहीं निकालोगे।’’

‘‘हाँ, इसके लिए कोई मौका न रहे। उसकी कोशिश बिना किसी किस्म की रंजिश पैदा किए, करना हमारा फर्ज है।’’

तीर ठिकाने पर लगा। रात की दावत, गाना-नाच बहुत मज़ेदार रहा। मुन्नीबाई लाहौर की एक मशहूर नाचने-गाने वाली थी। मकान की छत पर तम्बू के नीचे नाच और गाना बारी-बारी से होता रहा। सुनने वालों की संख्या सौ के लगभग थी। लोग न्योछावर दे रहे थे और इस न्योछावर के बल पर और एक दो ‘पैग’ के आश्रय पर, जलसा बारह के स्थान पर रात के एक बजे तक चला।

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