उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
रामकृष्ण अपनी पत्नी और बहन के साथ घर गया तो उसने अपनी पत्नी को बता दिया, ‘‘पिताजी ने नूरुद्दीन की पत्नी और उसकी माँ की निन्दा कर सब काम बिगाड़ दिया था। मैं फिर उसको ठीक मार्ग पर लाने का यत्न तो कर आया हूँ। देखें, परिणाम क्या होता है?’’
अगले दिन शरणदास ने अपने लड़को से कहा, ‘‘मुझको तुम्हारी खुशामद बिलकुल पसन्द नहीं आई। इससे कुछ बनेगा नहीं। मैं तो चाँदी की जूती से सीधा करना जानता हूँ।’’
‘‘पर पिताजी! आप के उपाय से तो कुछ होने वाला ही नहीं था। इससे तो बहुत उम्मीद है।’’
‘‘मुझको कुछ भी उम्मीद नहीं?’’
‘‘आप ज़रा चुप रहिए। मेरे उपाय का परिणाम निकलने के लिए कुछ समय दीजिए।’’
माला अपने भाई की योजना सुनकर कहने लगी, ‘‘नूरुद्दीन उनके सामने सब बक जाएगा और फिर मेरे लिए उनसे सुलह करने की कोई आशा नहीं रह जाएगी।’’
‘‘नहीं माला! ऐसा नहीं होगा। तुम ज़रा धीरज धरो। साँप भी मरेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी।’’
अगले दिन भगवानदास कॉलेज से घर लौटा तो मुहल्ले को लोग वहाँ एकत्रित हो रहे थे। ये वे लोग थे, जिनको नूरुद्दीन ने निमन्त्रण नहीं भेजे थे। वे रात मकान की छत पर गाने-बजाने का शब्द सुन रहे थे। अब वे डॉक्टर और डॉक्टर के पिता को बधाई देने आए हुए थे।
डॉक्टर ने कह दिया, ‘‘यह दावत, मैंने नहीं दी। यह भाई नूरे ने दी थी और उसने अपनी मर्ज़ी से लोग बुलाए थे।’’
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