उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘पर हम तो आपसे मिठाई खाने आए हैं। नूरुद्दीन और उसका बाप नए अमीर बने हैं, उनको पुरानों से मेज-जोल रखते शर्म आती है।’’
डॉक्टर भगवानदास हँस पड़ा। उसने बाज़ार से हलवाई को बुलवाया और कह दिया, सौ टोकरियाँ मिठाई की लगाकर भेज दो। आठ-आठ आने से कम दाम की मिठाई किसी में न हो। अब जो भी उस प्रकार का पिछले दिन की दावत में अनामंत्रित व्यक्ति आता, उसको मिठाई की एक टोकरी दे दी जाती।
नूरुद्दीन शाम को आया तो मिठाई बँटती देख हँसने लगा। उसने कहा, ‘‘भगवान भैया! यह ठीक ही किया है। यह बिल भी मैं दूँगा।’’
‘‘नूरुद्दीन! कुछ तो मुझको भी खर्च करने दो?’’ भगवानदास ने कहा।
‘‘मैं मुनव्वर की सुन्नत करवाने वाला हूँ। तुम उसकी खुशी में दावत कर देना।’’
इसने भगवानदास का मुँह बंद कर दिया। जब सब लोग चले गए तो नूरुद्दीन ने बात शुरू कर दी, ‘‘भगवान भैया! भाभी को मेरा संदेश नहीं दिया था वह आई नहीं।’’
‘‘उसकी तबीयत खराब थी।’’
‘‘तो क्या, एक नए जीव के आने की खबर मिल रही है?’’
‘‘नहीं, अभी ऐसी कोई बात नहीं।’’
‘‘देखो भगवान भापा! एक बात करो?’’
‘‘क्या?’’
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