उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘सुना है, कॉलेज के प्रोफेसरों के लिए सरकारी बंगले बने हुए हैं, तुमको वहाँ रहना चाहिए।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कल तुम्हारे साथी डॉक्टर घोष बता रहे थे कि तुम्हारे लिए यही ठीक है। वहाँ अपने साथियों की संगति में रहने से तरक्की करने में सहूलियत रहेगी।’’
‘‘यह उसने कहा था या अपने मन से कह रहे हो?’’
‘‘बात इस तरह हुई थी। उसने कहा था, नाच-गाने के लिए तीन मंजिलें चढ़कर जाना पड़ा है। कोई खुली जगह पर जश्न होता तो बहुत लुत्फ़ आता।’’
‘‘मैंने कहा, ‘‘यह मकान है, कोठी तो है नहीं।’’
‘‘उसने कहा, ‘भगवान को कोठी तो मिल सकती थी। अगर वह वहाँ चला जाए तो न सिर्फ ऐसे जलसे सुगमता से हो सकेंगे, बल्कि वहाँ रहते हुए, इस लायक लड़के की तरक्की का रास्ता भी खुल जाएगा।’’
‘‘मुझको यह बात ठीक लगी। मैंने फैसला किया था कि तुमको कहकर वहाँ बंगला लेने पर राजी कर लूँगा।’’
भगवानदास ने कहा, ‘‘बात यह है कि मैं अपने माता-पिता को यह बात कह नहीं सकता। दूसरे, तुम लोगों से मेल-मुलाकात एक बहुत बड़ी वजह है, जिससे मैं यहाँ से जाना नहीं चाहता।’’
‘‘भगवान भापा! यह सब फज़ूल की बातें हैं। लालाजी को मैं राज़ी कर लूँगा। जहाँ तक हमारे मिलने की बात है, वहाँ हमारे लिए एक कमरा रख छोड़ना, हम वहाँ आकर रह जाया करेंगे।’’
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