उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘मेरा कहा मानो, कल बंगले के लिए दरखास्त दे दो।’’
‘‘पहले पिताजी से बात कर लो। मैं उसके बाद ही विचार करूँगा। मुझको यह अपने माता-पिता से कृतज्ञता की पराकाष्ठा प्रतीत होती है कि जब मैं खाने-कमाने के योग्य हुआ हूँ तो उनको छोड़कर दूसरा घोंसला बना लूँ।’’
‘‘देखो भगवान! इस घोंसले को छोड़ने के लिए मैं नहीं कहता। तुम यहाँ भी एक कमरा रख छोड़ो। कभी-कभी यहाँ आकर रह जाया करना। फिर पिताजी को खर्च देते जाना। तब तो किसी किस्म का ऐतराज़ नहीं हो सकेगा?’’
भगवानदास विचार करने लगा। नूरुद्दीन ने फिर कहा, ‘‘भगवान भापा! तुमको प्रोफेसरी करनी है। इससे अपनी जिन्दगी को उसके मुताबिक ही बनाना होगा। नहीं तो, जहाँ अपने साथ बेइंसाफ़ी करोगे, वहाँ अपने तालिबइल्मों के साथ भी इंसाफ़ नहीं कर सकोगे। मैं तो यह कहूँगा कि एक झूठे ख्याल में अपने परिवार के साथ भी दग़ा करोगे।’’
‘‘नूरुद्दीन भैया! यह सब बातें डॉक्टर घोष ने बताई हैं?’’
‘‘नहीं, उसने तो यही कहा था कि वहाँ तुम्हारी तरक्की का रास्ता खुल जाएगा। यह तो मैंने सोचा है कि तरक्की का क्या मतलब हो सकता है। अपने जैसों, बल्कि अपने से अच्छों से मेल-मुलाकात और उनकी सोहबत जरूर तरक्की के लिए शाही सड़क बन जाएगी।’’
अगले दिन उसने कॉलेज के प्रिंसिपल से क्वार्टर के लिए कहा तो उसने बता दिया, ‘‘दो बँगले खाली हैं। एक तुम ले सकते हो। किराया वेतन में से कट जाएगा।’’
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