उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
उधर नूरुद्दीन ने लोकनाथ को कहा तो लोकनाथ उसके प्रस्ताव को सुन बोल उठा, ‘‘तो भगवान ने खुद मुझसे क्यों नहीं कहा?’’
‘‘मगर लालाजी, उसने तो अभी भी नहीं कहा। यह तो उस दिन डॉक्टर घोष बता रहे थे। मैंने अभी भगवान भापा से बात की ही नहीं। देखिए, मेरे दिमाग़ में तो कुछ इस किस्म का नक्शा बैठ रहा है। भापा एक आलीशान कोठी में रहे। वहाँ उसकी प्रैक्टिस भी चमकेगी। फीस बढ़ जाएगी। कम मेहनत और दाम ज्यादा। वैसे वहाँ अपने प्रिंसिपल से तथा दूसरे प्रोफेसरों से मेल-मुलाकात होने से बहुत जल्दी भगवानदास तरक्की करेगा।’’
‘‘आप यहाँ एक नौकर रख लें और भगवानदास नौकर का खर्च दे दिया करे, जिससे आपकी भी सेवा हो सके। फिर जब आप ‘रिटायर’ होंगे, नरोत्तम भी कहीं नौकर हो जाएगा और वह भी अपना कहीं मकान ले लेगा, आप कभी भगवानदास के पास, कभी नरोत्तम के पास, जाकर रहा करेंगे। ज़िन्दगी का लुफ्त आएगा।’’
‘‘देखो नूरुद्दीन! तुम भगवानदास को समझा देना। मेरी तरफ से कह देना कि मैं आपत्ति नहीं करूँगा।’’
‘‘नहीं, लालाजी! ऐसे नहीं। आप उसको कहिए कि आपने सुना है कि उसके लिए बंगले में रहना ठीक रहेगा।’’
‘‘और वह पूछे कि किससे सुना है, तो क्या कहूँ?’’
‘‘कह दीजिए कि नूरुद्दीन से सुना है। तब वह मुझसे पूछेगा तो मैं उसको समझा दूँगा।’’
इस तरह रामकृष्ण की नीति-कुशलता और नूरुद्दीन की कार्य-कुशलता से भगवानदास की पत्नी की इच्छा पूर्ण हो गई। उसको अपनी माँ के घर गए हुए एक महीना हो चुका था कि भगवानदास अपनी ससुराल गया और उसको लेकर हस्पताल के पीछे प्रोफ़ेसरों के लिए बने बंगले में चला गया।
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