उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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लोकनाथ तो इतना सरल चित्त व्यक्ति था कि वह इसमें माला के षड्यन्त्र का आभास नहीं पा सका, परन्तु भगवानदास की माँ एक स्त्री की भावना को अपने पति से अधिक समझती थी। वह जानती थी कि स्त्रियाँ अपनी बातें स्वीकार करवाने के लिए क्या-क्या प्रपंच रचा सकती हैं।
लोकनाथ ने नूरुद्दीन के कहने पर भगवानदास से कहा था कि अगर उसको कुछ अधिक कष्ट न हो तो वह अपने लिए एक बंगला ले ले। भगवानदास समझ गया कि नूरुद्दीन ने बात वहाँ तक पहुँचा दी है। उसने भी अपने मन की बात बता दी, ‘‘माला तो, जब से उसे मेरी नौकरी लगने की बात का पता चला है, कह रही है। मगर मैं, आपकी और कुछ अपनी भी, असुविधा की बात देख, उसे टाल रहा था। उस दिन प्रोफ़ेसर घोष वहाँ पर जाने के कुछ लाभ नूरुद्दीन को बता रहे थे। शायद उसने ही आपको बताया है।’’
‘‘हाँ, देखो भगवान! यह तुम्हारी नई ज़िन्दगी है। इसमें जैसा रहने से तुमको ठीक जँचे, वैसे रहना चाहिए। मैं क्लर्क हूँ। मैं पायजामा, बन्द गले का कोट और पगड़ी पहनकर दफ्तर जाता हूं और तुमको पतलून, कोट, कालर, नैकटाई पहननी पड़ रही है। यह तो काम और ओहदे की आवश्यकता है। तुम अपने काम को ठीक ढंग से करने के लिए जहाँ भी रहना ठीक समझो, उसका प्रबन्ध कर लो।’’
भगवानदास चुप रहा। जब बाप-बेटे में बात निश्चय हो गई तो रामदेई ने कह दिया, ‘‘मुझको कुछ ऐसा लग रहा है कि माला ने भगवान को मजबूर किया है कि वह हमारा मकान छोड़ दे, और भगवान ने नूरे से कहकर ही आपसे यह कहलवा दिया है।’’
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