उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘कैसे कहती हो, यह? क्या प्रमाण है तुम्हारे पास कि भगवान अब मुझसे भी चार-सौ-बीसी करने लगा है?’’
‘‘औरत के मन की बात औरत ही जानती है। हकीकत यह है कि मैं भी, जब आपकी माताजी के साथ रहती थी, मन से यह इच्छा किया करती थी कि हम पृथक् होकर रहें। मैंने भी अपनी माँ से कहा था कि हमको अपने सास-श्वसुर से पृथक् रहना चाहिए। तब मेरी माँ ने कहा, ‘‘एक पक्षी की भाँति पर निकलते ही माँ-बाप का घोंसला छोड़ना चाहती हो?’’
‘‘मैंने समझा कि माँ मेरी बात का समर्थन कर रही है। इससे मैंने हाँ कहा तो वह बोली, ‘‘पर तुम तो चिड़िया नहीं हो। तुम तो लड़की हो। मनुष्य हो, बुद्धि और मन रखती हो। तुम्हें तो प्रत्येक कार्य के परिणाम पर विचार कर ही आचरण करना चाहिए।’ तत्पश्चात् माँ ने मुझको स्वयं, सास-श्वसुर के साथ रहने के लाभ समझाए तो मैं मान गई। ऐसा मालूम होता है कि माला की माँ ने उसको समझाया नहीं। साथ ही भगवान अपनी पत्नी के मोह में आप से अधिक फँस गया है।’’
‘‘तुम्हारी बात भी ठीक हो सकती है। मगर मैं तो अपने कार्य का परिणाम विचाकर ही कह रहा हूं। लड़का प्रोफेसर बन गया है। उसका समाज दूसरा बन गया है। न तो नूरा और खुदाबख्श उसके समाज में हैं और न ही मैं तथा मुहल्ले के अन्य मित्र। उसकी तरक्की यहाँ रुक जाएगी।’’
रामदेई समझती थी कि विचारकर किया कार्य ठीक परिणाम ही उत्पन्न करता है। इस कारण वह चुप रही। फिर भी उसको एक अज्ञात भय था कि भगवानदास सुखी नहीं रहेगा।
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