उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
इसके पश्चात् वह अपनी घर-गृहस्थी के प्रबन्ध में लगकर भूल गई कि भगवान मकान छोड़ने की तैयारी कर रहा है। एक दिन ठेला आया और भगवान माला की माँ के घर से मिला सब सामान उठवाकर ले गया। अगले दिन वह ससुराल गया और माला को कोठी में चलने के लिए कहने लगा। जब माला तैयार होकर निकली और भगवानदास द्वारा लाये ताँगे में चढ़ने लगी तो भगवानदास ने कहा, ‘‘पहले माताजी से मिलकर फिर नए बँगले में चलेंगे।’’
‘‘मैं वहाँ नहीं जाऊँगी।’’ माला ने स्पष्ट इंकार कर दिया।
‘‘क्यों?’’
‘‘इस बार मैं मन में प्रण कर निकली थी कि मैं उस घर में पाँव नहीं रखूँगी। मैं वहाँ नहीं जाऊँगी।’’
‘‘माला! मैं तो उनसे अभी मिलकर आ रहा हँ। मैं तुम्हारे लिए ही कह रहा था। तुमको माँ से मिले एक महीना होने जा रहा है, मिलने चलना चाहिए।’’
‘‘वे भी तो मुझसे मिलने नहीं आईं। जी नहीं, मैं नहीं जाऊँगी। कहें तो चलूँ, नहीं तो लौट जाऊँ।’’ इतना कहकर माला ने ताँगे में पैर रखते-रखते वापस कर लिया।
भगवान को मन-ही-मन माला की उच्छृंखलता पर क्रोध तो बहुत आया परन्तु वह मन में विचार करता था कि उसके साथी प्रोफेसर, जो बँगलो में रहते हैं, सब उसके वहाँ पहुँचने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे। साथ ही वह अपनी ससुराल में अथवा बाहर सड़क पर खड़े-खड़े झगड़ा करना उचित न समझ, चुपचाप ताँगे में बैठकर बोला, ‘‘चलो बैठो?’’
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