उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘कहाँ चल रहे हैं?’’
‘‘नये मकान में।’’
माला बैठ गई।
यों तो भगवानदास के लिए अपने विवाहित-जीवन का यह पहला अनुभव नहीं था। पिछले दो वर्ष में कई बार पत्नी से झगड़ा हो चुका था, परन्तु वे झगड़े प्रायः शयनागार में हुए थे। आज यह पहला अवसर था, जब बाज़ार में, ताँगे वाले के सामने ही, वह उसका अपमान कर बैठी थी। भगवानदास मन-ही-मन रो पड़ा। ऐसी डाँट तो उसने अभी तक अपने माता-पिता से भी नहीं खाई थी। ताँगे में बैठ माला ने पूछा, ‘‘कितना बड़ा है बँगला?’’
‘‘अभी देख लोगी।’’ भगवानदास का मन अधिक बात करने को नहीं किया।
माला अनुभव करने लगी कि उसको, इस समय, जब वह अपनी इच्छा-पूर्ति में सफल हो रही है, उससे मीठा व्यवहार करना चाहिए था। यदि वह अपनी सास से मिलने चली जाती तो क्या हानि होती? परन्तु उसके मन में तो यह बात बैठ चुकी थी कि उसके सास-श्वसुर बहुत ही निर्धन हैं। वे अब उस नए जीवन में अपने लड़के की कुछ अधिक सहायता नहीं कर सकते। यदि किसी समय रुपए-पैसे की आवश्यकता पड़ी तो उसके पिता ही सहायक हो सकेंगे। इसलिए उसने यदि अपने सास-श्वसुर की अवहेलना की है तो कोई हानि नहीं हुई। फिर भी वह अपने पति के मन से अपने कठोर व्यवहार के प्रभाव को मिटाने के लिए कहने लगी, ‘‘मैं ज़रा यहाँ टिक जाऊँ फिर मोहिनी बहन तथा उसके बच्चों को बुलाऊँगी। कभी-कभी माताजी तथा पिताजी को भी यहाँ आकर रहने का निमन्त्रण दिया करूँगी।’’
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