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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


वह कहती गई कि मैं यह करूँगी, मैं वह करूँगी परन्तु भगवानदास चुप रहा। उसकी उत्तर देने अथवा किसी प्रकार की बात करने की रुचि नहीं हुई। पहले ही दिन, वह विचार करने लगा था कि वह अपने माता-पिता से पृथक् होकर भूल तो नहीं कर बैठा?

ताँगा बँगले में पहुँचा तो भगवानदास ने अपनी पत्नी की गठरी उठाई और ताँगे वाले को भाड़ा दे विदा कर दिया। माला उतरकर बँगला देखने भीतर चली गई थी।

एक नौकर भगवानदास ने पहले ही रख लिया था। नौकर का नाम था सीताराम। वह कांगड़ा जिसे का रहने वाला एक ब्राह्मण था। अभी चौदह-पन्द्रह वर्ष का बच्चा ही था फिर भी बहुत चुस्त और घर का काम करने में चतुर प्रतीत होता था।

ताँगा आया देख, आस-पास के बँगलों के प्रोफेसर और उनकी पत्नियाँ भगवानदास तथा उसकी पत्नी का स्वागत करने आ गए। चाय का प्रबंध हो गया और परस्पर परिचय होने लगा।

जब परिचय कुछ बढ़ा तो स्त्रियों में परिचय घनिष्ठ होने लगा। कुछ दिन के पश्चात् नए परिचितों में भी छटनी होने लगी। आयु, स्वभाव, माता-पिता की आर्थिक स्थिति और विचारों के अनुसार मित्रता घनी होने लगी तथा अथवा तटस्थता बढ़ने लगी।

माला को भी एक सखी मिल गई। प्रोफेसर खोसला की पत्नी रुक्मिणी का विवाह उससे भी कम काल पूर्व हुआ था। उससे इसकी घनिष्ठता इतनी बढ़ गई कि दोनों अपने-अपने पति से अपने सम्बन्धों की चर्चा भी निःसंकोच करने लगीं थीं।

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