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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


बँगले में आने के दूसरे दिन ही भगवानदास, कॉलेज से अवकाश पाने पर, अपने पिता से मिलने चला गया। उसका पिता बैठक में बैठा हुक्का गुड़गुड़ा रहा था कि उसने हाथ जोड़कर नमस्कार की। लोकनाथ ने पुत्र को देखा, तो पूछ लिया, ‘‘सुनाओ भगवान! ठीक हो?’’

‘‘हाँ पिताजी!’’ परन्तु उसकी आँखें डबडबा आईं।

‘‘क्या बात है? बीवी ने रात पीटा तो नहीं।’’ लोकनाथ कहते-कहते हँस पड़ा। भगवानदास के आँसू उसके गालों पर लुढ़क पड़े। इस पर भी वह मुस्करा दिया।’’

लोकनाथ अनुभव कर रहा था कि यह नए जीवन के नए अनुभवों का परिणाम है और वह अभी अपने मन को अपनी नई परिस्थिति के अनुकूल नहीं बना सका। इस कारण उसने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘जाओ, माँ से मिल आओ। मोहिनी भी आई हुई है।’’

भगवानदास उठकर ऊपर की मंजिल पर चला गया। माँ मोहिनी की सास के लिए चाय तौयार कर रही थी। ‘‘आओ भगवान! कैसी है बहू?’’ भगवान को देख माँ ने कहा।

‘‘ठीक है माँ!’’

‘‘अब तो प्रसन्न होना चाहिए उसे।’’

‘‘क्यों माँ? उसको यहाँ कुछ कष्ट था?’’ भगवानदास ने भर्राई आवाज़ में कहा।

माँ ने भगवानदास के मुख पर देखा। भगवानदास ने गालों पर के आँसू पोंछ लिए थे, परन्तु उसकी आँखें भरी हुई थीं। माँ ने देखा तो चिन्ता व्यक्ति करते हुए पूछा, ‘‘क्यों? क्या हुआ है?’’

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