उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
भगवानदास का आँसुओं से गला रुँध रहा था। उसने कहा कुछ नहीं और माँ के सामने जा बैठा। माँ की आँखें तरल हो उठी थीं। भगवानदास ने माँ की आँखों में तरलता देखी, तो उसकी आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। कितनी ही देर तक बैठे, वे दोनों रोते रहे, मानों उनके मन एक-दूसरे की वेदना का अनुभव कर रहे हों।’’
माँ चाय बना रही थी। वह भूल गई थी कि बाहर कमरे में मोहिनी और उसकी सास चाय की प्रतीक्षा कर रही हैं। मोहिनी ने जब देरी होती देखी, तो वह स्वयं रसोईघर में आ गई। वह भी दोनों को आँसू बहाते देख, चकित खड़ी रह गई।
‘‘क्या हुआ है, माँ।’’ मोहिनी ने कुछ भी न समझते हुए पूछ लिया।
माँ को स्मरण हो आया कि मोहिनी की सास बाहर चाय की प्रतीक्षा कर रही है। उसने कह दिया, ‘‘मोहिनी! चाय ले चलो। मैं आ रही हूँ।’’
मोहिनी ने भी पहले अपनी सास को चाय पिलाकर, विदा कर देना ठीक समझा। उसने तुरन्त चाय की ट्रे तैयार की और लेकर बाहर चली गई। माँ उठी, मुख धोया तथा पोंछा, तत्पश्चात् वह भी बाहर आ गई।
भगवानदास अपने कमरे में चला गया। अब कमरा सामन से रिक्त था। वहाँ एक कुर्सी रखी थी और दीवार के साथ दर्पण लगा था। बस, और कुछ नहीं था। वह उस कुर्सी पर बैठ गया और दर्पण में मुख देखता हुआ अपनी अवस्था पर विचार करने लगा। एकाएक उसको विचार आया कि डॉक्टर घोष का कहना कि बँगले में जाकर रहने से उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा, सत्य नहीं। भला, क्या होगा इन प्रोफेसरों की संगति में रहकर? क्या कुछ इनकी संगति से प्राप्त हो सकता है, जो कॉलेज में हो रही संगति से उसे प्राप्त नहीं था? उसको कुछ ऐसा लगा कि डॉक्टर घोष ने नूरुद्दीन से हँसी की होगी।
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