उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
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आज माँ ने जब पूछा, ‘‘भोजन करोगे? भगवान!’’ तो वह तुरन्त तैयार हो गया।
माँ के मन में विचार आया कि उसको कहे कि उसकी पत्नी उसके लिए खाना बना प्रतीक्षा कर रही होगी, परन्तु वह नहीं कह सकी।
खाना खाते हुए मोहिनी ने पूछ लिया, ‘‘भैया! क्या भाभी से कल कोई झगड़ा हुआ है?’’
‘‘नहीं तो।’’
‘‘तो रो क्यों रहे थे?’’
‘‘अपनी विवशता पर।’’
‘‘क्या विवशता थी?’’ मोहिनी ने न समझते हुए पूछा।
‘‘विवशता है समाज के बन्धनों की। मन एक बात चाहता है और ये बन्धन उस चाहत में बाधक बन गए हैं।’’
‘‘अर्थात् मन चाहता है पत्नी के पीछे जाने को, और समाज कहता है, बूढ़ी माँ का विचार भी करना चाहिए। इसलिए भैया! यहाँ न इच्छा रखते हुए भी खाना खाने पर विवश हो।’’
‘‘मोहिनी! रोया तो तब था, जब माँ ने खाने को नहीं पूछा था। अब खाना खाते हुए तो प्रसन्न हो रहा हूँ। मन चाहता है कि माँ के हाथ की रोटियाँ जीवन-भर खाता रहूँ। परन्तु समाज ने गले में पत्थर बाँध दिया है। वह उतार कर फेंका नहीं जा सकता।’’
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