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उपन्यास >> मैं न मानूँ

मैं न मानूँ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7610

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मैं न मानूँ...


मोहिनी को भी भाई की वेदना का अनुभव हुआ। उसकी आँखों में भी जल छलकने लगा। परन्तु उसने मन कड़ा कर कह दिया, ‘‘परन्तु भैया! लड़कियों को भी तो अपने माता-पिता को छोड़ना पड़ता है।’’

‘‘वह तो एक महीना माँ के घर रहने के बाद भी आज फिर माँ से मिलने चली गई थी।’’

‘‘और भैया,! तुम भी तो तेईस वर्ष माँ के पास रहने के पश्चात् आज फिर माँ से मिलने चले आये हो?’’

माँ हँस पड़ी। भगवानदास निरुत्तर हो गया। मोहिनी अपने वर्ग की हिमायत करने लगी थी। माँ ने हँसते हुए कह दिया, ‘‘तुम दोनों मूर्ख हो। भला माँ को छोड़ने-न-छोड़ने की बात कहाँ से आ गई? यह तो इच्छा-अनिच्छा की बात है। समाज के बन्धन इस इच्छा पर अपना अधिकार बना बैठे हैं।’’

‘‘मान लो, तुम दोनों हमारे घर में आकर रहना चाहो तो समाज तुम्हारी निन्दा करने लगेगा। यह है समाज का बन्धन। जब भगवान यहाँ से जाना नहीं चाहता और इसकी पत्नी यहाँ रहना नहीं चाहती तो समाज इसको अपनी पत्नी के पास रहने को कहता है। यह है समाज का बन्धन। इसी प्रकार अन्य बातें हैं।’’

मोहिनी की समझ में आने लगा था कि समाज ने कई बन्धन बनाए हैं। उनमें से कुछ बन्धन तो ठीक हैं। इन ठीक बन्धनों में एक यह भी है कि स्त्री एक पति की पत्नी बनकर रहे। वह समझती थी कि यह तो बहुत ठीक है परन्तु माता-पिता और पत्नी के झगड़े में पति पत्नी का पक्ष ले और पत्नी पति का पक्ष ले, यह सर्वथा ठीक प्रतीत नहीं होता। फिर भी समाज तो यही चाहेगा कि पति-पत्नी परस्पर एक होकर रहें। वह मान रही थी कि समाज का बन्धन इस विषय में अनुचित है।

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