उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
लोकनाथ ऊपर आ गया। भगवानदास भोजन कर हाथ धो रहा था। लोकनाथ ने भगवानदास को खड़ा देखा तो विस्मय से पूछ लिया, ‘‘तुम अभी तक यहीं हो?’’
‘‘पिताजी! माँ ने कहा, भोजन कर लो तो मैं भोजन करने ठहर गया।’’
‘‘भोजन करना था तो माला को भी ले आते। अच्छा, अब जाओ। बहुत देर हो गई है। नीचे नूरुद्दीन पूछ रहा था। मैंने तो कह दिया कि तुम आए थे और चले गए हो।’’
भगवानदास नीचे उतर गया। नूरुद्दीन तब तक भी बैठक मैं बैठा था। उसने भगवानदास को देखा तो विस्मय से पूछने लगा, ‘‘तो तुम अभी गए नहीं?’’
‘‘बस जा रहा हूँ।’’
नूरुद्दीन उठकर उसके साथ जाने को तैयार हो गया। उसने कहा, ‘‘चलो, तुमको थोड़ी दूर तक छोड़ आऊँ।’’
दोनों चल पड़े। नूरुद्दीन ने पहली ही बात जो उसको कही वह थी, ‘‘देखो भापा! बीवी को वहाँ अकेले मत छोड़कर आया करो। यह मुहल्ले और परिवार की बात दूसरी है। यहाँ सब अपने हैं। एक आवाज़ दो तो सारा मुहल्ला इकट्ठा हो जाता है और वहाँ उजाड़ बियावान में उसे अकेली छोड़कर चला आना ठीक नहीं। कोई चोर-डाकू आ जाए और वह चीखती भी रहे तो कोई मदद के लिए नहीं आयेगा।’’
‘‘देखो, नूरुद्दीन! तुमने मेरा दिमाग़ गन्दा कर दिया था। एक दिन के अनुभव से मैं समझ रहा हूँ कि हमारा अकेले उस जंगल में जाकर रहना भूल है। अब वहाँ से लौटना तो असम्भव हो गया है।’’
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