उपन्यास >> मैं न मानूँ मैं न मानूँगुरुदत्त
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मैं न मानूँ...
‘‘सब नई बातें पहले ऐसे ही लगती हैं। लगता है कि कोई भारी भूल हो रही है, मगर जब एक बार छलाँग लगा दी जाती है तो फिर वह काम करना ही पड़ता है और कुछ दिन गुज़रने पर तो नई बात कुदरती और पहली हालत ग़ैर-कुदरती लगने लगती है।’’
भगवान चुप रहा। नुरुद्दीन ने पुनः कहा–‘‘सब ठीक हो जाएगा भापा! माला भाभी को भी अकेले रहने की आदत हो जाएगी और तुमको भी उसे अकेले छोड़कर जाने में भय नहीं लगेगा।’’
‘‘तुम खूब हो। एक दिन भी तो करीमा को छोड़कर जाते नहीं और दूसरों को सबक सिखाने लगे हो।’’
नूरुद्दीन हँस पड़ा। बोला, ‘‘मैं तो उसे छोड़कर जा सकता हूँ। मैं कल ही उससे कह रहा था कि भापा ने हमारे लिए एक कमरा अपने बँगले में रिज़र्व कर रखा है। उसने पूछा, ‘‘किसलिए?’’ मैंने बताया ‘हमारे रहने के लिए।’’
‘‘वह बोली, ‘‘मैं तो वहाँ जाकर नहीं रहूँगी।’’ मैंने पूछा, ‘‘क्यों?’ तो वह कहने लगी, ‘माला भाभी मुझसे रूठी रहती हैं।’’
‘‘मैंने कह दिया, ‘‘मुझसे तो बहुत खुश रहती हैं।’ यह सुन वह हँस पड़ी और कहने लगी, ‘तो जाइए, वहाँ रहने चले जाइए।’’
‘‘पर तुम अकेली रह जाओगी?’ मैंने कहा तो वह बोली, ‘मैं आपके बिना मर नहीं जाऊँगी। मैं आपकी अम्मी के पास सो रहूँगी।’’
‘‘मैंने पूछा, ‘तुमको मेरे अब्बाजान से डर नहीं लगेगा?’ वह कहने लगी, ‘नहीं, उनसे डरने की कोई बात नहीं है। मुझको किसी से भी डर नहीं लगता’।’’
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