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उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ

प्रारब्ध और पुरुषार्थ

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 7611

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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।


‘‘तो विपिन लाला को भी अपने साथ ही ले आइएगा।’’

विभूतिचरण समझ गया कि धन इक्के में रखा है और यह उसे ले लापता होना चाहता है। इससे उसने कल्लू का मार्ग रोकते हुए कहा, ‘‘भाई ठहरो। लाला तुम्हारे इक्के में ही गाँव जाएगा। मैं तो आगरा जा रहा हूँ।’’

इस पर भी कल्लू इक्के पर सवार हो घोड़े को हाँकने लगा तो विभूतिचरण ने आगे बढ़ घोड़े की लगाम पकड़ ली और सरकारी रथ के रथवान को बुला कह दिया, ‘‘इसको पकड़ लो। यह भागने न पाए।’’

रथवान राजपूत था। उसने कल्लू को दबोच लिया। कल्लू ने शोर मचाया तो कुएँ पर खड़े यात्री और सराय में से कुछ लोग हल्ला सुन बाहर आ गए। इन आनेवालों में श्यामबिहारी और विपिनबिहारी भी थे।

विपिन को आता देख कल्लू इक्केवाला कुछ शान्त हो गया। जब विपिन को पता चला कि कल्लू गाँव को लौट रहा था तो उसने पण्डित जी को कह दिया, ‘‘इक्के की चौकी के नीचे एक थैली अशरफियों की रखी है। उसी को लेकर यह भाग रहा था।’’

इस पर तो यात्रियों को, जो कुएँ पर जल पी रहे थे, क्रोध आ गया और वे कल्लू को चोर समझ पीटने लगे। विपिन ने इक्के में बैठने की चौकी के नीचे से अशरफियों की थैली निकाली और कल्लू को दस रुपये देकर गाँव वापस भेज दिया।

इसी समय रामकृष्ण भी वहाँ आ गया। रामकृष्ण को देख विभूतिचरण ने मन्दिर के विषय में जानना आरम्भ कर दिया। रामकृष्ण ने बताया, ‘‘मन्दिर तो बन गया है। वह आप कलश पर सोना चढ़ रहा देख रहे हैं। इसमें मूर्ति की प्रतिष्ठा के विषय में विचार हो रहा है। मन्दिर की प्रबन्धक समिति भीतर बैठी विचार कर रही है।’’

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