उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
श्यामबिहारी और उसके लड़के को यह कह, ‘‘मैं अभी आता हूँ।’’ पण्डित जी भीतर चले गए। आगरा से आए पाँच सेठ, संरक्षक और प्रबन्धक, वहाँ बैठे थे। वे सब विभूतिचरण को देख उठ उनका सत्कार करने लगे।
‘‘आइए पण्डित जी! बहुत ही शुभ अवसर पर आए हैं। हम विचार कर रहे थे कि आगामी वैशाख प्रतिपदा को मन्दिर में मूर्ति स्थापित की जाए।’’
‘‘आपका तो इसे शिवालय बनाने का विचार था। हमने लक्ष्मीनारायण की मूर्ति स्थापित करने का निश्चय किया है और हम सबकी यह सम्मति है कि मूर्ति की प्रतिष्ठा आप करेंगे।’’
‘‘देख लो। कहो तो काशी जी से किसी विद्वान् को बुलाया जा सकता है।’’
लाला विष्णुसहाय, जिसने एक लाख रुपया मन्दिर के साथ धर्मशाला और मूर्ति-क्रय करने के लिए दिया था, विभूतिचरण को कह रहा था कि उसे ही मूर्ति-प्रतिष्ठा करनी चाहिए। उसने कहा, ‘‘घर का छोटा विद्वान् भी बाहर के प्रकाण्ड विद्वान् से अच्छा होगा। और फिर आप भी तो काशी जी से न्यायरत्न बनकर आए हैं।’’
‘‘ठीक है। आप निश्चय करिए। मैं तो यह जानना चाहता था कि इस विषय में प्रगति कहाँ तक पहुँची है।’’
सबने सर्वसम्मति से यह विचार व्यक्त किया कि मूर्ति की स्थापना पण्डित विभूतिचरण वैशाख प्रतिपदा के ब्रह्म मुहूर्त में करेंगे। उस समय मन्दिर में सजातियों का सहभोज होगा। एक सौ एक ब्राह्मण तीन दिन का यज्ञ करेंगे और सबके एक-एक स्वर्ण मुद्रा दक्षिणा के रूप में दी जाएगी और धोती, अँगोछा वस्त्र के रूप में दिए जाएँगे।
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