उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
तृतीय परिच्छेद
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चित्तौड़-विजय पर जाने से पूर्व अकबर ने विभूतिचरण से पूछा था कि वह इस मुहिम को कब आरम्भ करे। शहंशाह ने राजस्थान के राजाओं को गनौर के दरबार में बुलाया था और लगभग सब राजा वहाँ आए थे। मेवाड़ और मालवा नरेश नहीं आए थे। दरबार में अकबर ने वहाँ आए राजाओं से पृथक्-पृथक् संधियाँ की थीं। उन संधियों में प्रत्येक से यह शर्त करा ली थी कि वे अकबर की मुहिमों में सैनिक सहायता देंगे।
गनौर के दरबार के उपरान्त ही अकबर मालवा और मेवाड़ के नरेशों को दरबार में न आने का दण्ड चाहता था। अतः इन दोनों राज्यों पर आक्रमण की तैयारी कर दी थी। मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ को अजेय समझा जाता था। इस कारण चित्तौड़-विजय के लिए अकबर स्वयं जाना चाहता था और उसने विभूतिचरण को बुलाकर पूछा था कि इस समर पर जाने का मुहूर्त क्या है?
विभूतिचरण ने तिथि बताई। यह आश्विन मास की प्रतिपदा थी। इस पर अखबर ने पूछा, ‘‘हमारा यह समर सफल होगा अथवा नहीं?’’
विभूतिचरण ने अपनी गणना पर पुनः विचार कर कहा, ‘‘इसमें हुजूर कामयाब होंगे।’’
इससे प्रसन्न हो अकबर ने मुहरों की एक थैली विभूतिचरण के रथ पर रखवा दी। पहले भी एक बार महारानी ने इसी प्रकार मुहरों की थैली उसे दी थी। पण्डित जी उसे ले जाना नहीं चाहते थे। परन्तु जब उन्हें बताया गया कि यह जरूरतमंदों में बाँट देने के लिए हैं तब पण्डित जी ने उस थैली को ले लिया था और फिर भटियारिन की सराय के साथ बन रहे मन्दिर के लिए दे दी थी। अकबर ने इस बार भी उसी तरीके से मुहरें रथ पर रखवाईं और कहलवा दिया कि पण्डित जी जहाँ उचित समझें, उन्हें दान-दक्षिणा में दे दें।
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