उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
विभूतिचरण ने इस धन को भी मन्दिर समिति को दे दिया। इस मुहिम के आरम्भ करने के समय राजा मानसिंह ने इस समर को स्वयं चलाने का प्रस्ताव किया था। इसमें कारण यह था कि एक बार मेवाड़ के महामन्त्री जयमल ने जयपुर वालों के अपशब्द कहे थे कि वे अपनी लड़की को अकबर के हरम में भेजकर हिन्दुओं के साथ गद्दारी कर रहे हैं। जयपुर वालों का पूर्ण परिवार इस कटु वचन से मेवाड़ वालों का शत्रु हो गया था और वह अपने अपमान का बदला लेना चाहते थे।
परन्तु अकबर की सेना के एक सालारे-अज़ीम थे अनवरखाँ। उसने अकबर को सम्मति दी थी कि राजपूतों को इस मुहिम का प्रबन्ध देना ठीक नहीं होगा। इसे तो केवल मुसलमानों के द्वारा ही लड़वाना चाहिए। अनवरखाँ की बात अकबर को पसन्द आई थी और मानसिंह के प्रस्ताव को यह कहकर डाल दिया गया था कि राजपूतों से अकबर को और बहुत-सा काम लेने हैं, इस मच्छर को मसलने के लिए वह उनको कष्ट नहीं देना चाहता।
अकबर का विचार था कि यह मुहिम पन्द्रह दिन में समाप्त हो जाएगी, परन्तु इसमें छः मास लग चुके थे और चित्तौड़ का घेरा भी पूर्ण रूप से अभी हो नहीं सका था।
अकबर देख रहा था कि उसके सिपाही मन से इस मुहिम में लड़ नहीं रहे। वह इसका कारण अपने सालारे-जंग अनवरखाँ से पता करने लगा तो उसे बताया गया कि मुसलमान सिपाही अब अपने शहंशाह के लिए लड़ने में दिलचस्पी नहीं ले रहे।
‘‘क्यों? अकबर का प्रश्न था।
‘‘इसलिए कि आगरा से कुछ ऐसी खबरें आ रही हैं जिनकी वजय से मुसलमान सिपाही यह समझ रहे हैं कि वे एक बुतपरस्त की सल्तनत की तरक्की के लिए लड़ रहे हैं।’’
|