उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तो वे समझते हैं कि हम नमाज़ पढ़ने की बजाय किसी पत्थर के बुत को सजदा करते हैं?’’
‘‘हाँ हुजूर! यह खबर है कि शहंशाह-ए-हिन्द की दी ज़मीन पर शहंशाह से दिए रुपए से एक आलीशान शिवालय बन रहा है।’’
‘‘लाहौल बिला कुव्वत। यह गलत बयानी कौन कर रहा है?’’
‘‘जहाँपनाह! यह मशहूर हो रहा है कि हुज़ूर ने एक ज्योतिषी पण्डित को पाँच सौ अशरफी दी थीं और उन अशरफियों से भटियारिन की सराय के साथ बन रहे मन्दिर के कलश पर सोना चढ़ाया जा रहा है।’’
‘‘तो यह ठीक खबर है?’’
‘‘इसके ठीक और गलत की बात तो शहर का कोतवाल ही बता सकता है। मैं तो यह अर्ज़ कर रहा हूँ कि यह खबर फौज में फैल रही है और इससे फौज तो फौज, मुल्क-भर के मोमिनों के हौंसले पस्त हो रहे हैं।’’
अकबर को स्मरण था कि पण्डित विभूतिचरण को मेवाड़ की मुहिम पर चलने से पूर्व महारानी ने पण्डित जी से अपने होनेवाले बच्चे के विषय में पूछा था और पण्डित के नज़ूम से प्रसन्न हो पाँच सौ अशरफी भेंट में उसके रथ पर रखवा दी थीं। साथ ही रथवान ने यह सूचना दी थी कि वह धन पण्डित भटियारिन की सराय पर छोड गया था, अपने घर नहीं ले गया था। रथवान ने बताया था कि उस समय पण्डित जी की जेब में एक रुपया भी नहीं था।
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