उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
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विभूतिचरण आगरा की नगर सराय से श्यामबिहारी और उसके पुत्र विपिनबिहारी से छुट्टी ले स्नानादि से निवृत्त हो राजमहल के द्वार पर जा पहुँचा। उसने अपने नाम की सूचना भीतर भेज दी। आशा के विपरीत दरबान भीतर गया और समाचार लाया कि शहंशाह उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
‘‘तो शहंशाह समर से लौट आए हैं?’’ पण्डित ने पूछा।
‘‘हाँ। वह भीतर दीवानखाने में आपकी इन्तज़ार में बैठे हैं।’’
‘‘तो चलो।’’ विभूतिचरण ने कहा और चल पड़ा।
दीवानखाने में शहंशाह एक तकिए का आश्रय लिये बैठा था। पण्डित जी ने हाथ उठा आशीर्वाद दिया तो शहंशाह ने कहा, ‘‘पण्डित जी, आइए।’’
विभूतिचरण आदरयुक्त अन्तर रख सामने खड़ा हुआ तो उसे बैठने के लिए नहीं कहा गया। अकबर ने पूछा, ‘‘सुना है कि आप पिछले छः मास से आगरा नहीं आए।’’
‘‘जहाँपनाह! मेरा आगरे में आपकी खिदमत करने के सिवाय दूसरा कोई काम नहीं होता। यहाँ के कुछ लोग मेरी सेवाओं से लाभ उठाते हैं, परन्तु इसके लिए उनको गाँव में आना पड़ता है।’’
‘‘और हमें गाँव में क्यों नहीं बुलाते?’’
‘‘इसलिए कि आप एक निहायत ही अहम काम कर रहे हैं। उससे आपको हटाकर आपकी कीमती वक्त एक छोटे-से गन्दे गाँव में आने-जाने में फजूल गँवाने से बचाना चाहता हूँ।’’
‘‘हम कौन-सा अहम काम कर रहे हैं?’’
‘‘हिन्दुस्तान जैसे वसीह मुल्क को एक राज्य के तले लाने की कोशिश कर रहे हैं।’’
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