उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘तो यह बहुत जरूरी काम है?’’
‘‘इतना ज़रूरी न भी हो, तब भी यह निहायत ही मुश्किल है।’’
‘‘तो इसके बिना भी लोगों का भला मुमकिन है?’’
‘‘मैं लोगों के भले-बुरे पर गौर नहीं कर रहा।’’
‘‘मगर आपने एक दिन कहा था कि सबकी भलाई सोचना हर एक हिन्दू का फर्ज़ है।’’
‘‘हाँ, हुज़ूर! हमारे यहाँ इस किस्म के काम को यज्ञ कहते हैं। हमारी धर्म-पुस्तकों में यह कहा है कि हमारे सब काम यज्ञरूप हों। मतलब यह है कि सबके फायदे के लिए हों।’’
‘‘और अपना फायदा?’’
‘‘काम करनेवाला भी तो, सबमें शामिल होगा। जब सबका भला होगा तो उसका भी होगा।
‘‘देखिए जहाँपनाह, मैं गाँव में एक कुआँ लगाता हूँ। गाँववाले उससे पानी निकालते हैं तो मैं भी निकाल सकता हूँ।’’
‘‘मगर अब आप कह रहे हैं कि मेरी मुश्किल पर गौर करते हुए लोगों के फायदे की बात नहीं सोच रहे।’’
‘‘उनके फायदे की बात उनको बताता हूँ। जैसे आपके फायदे की आपको बताता हूँ। मगर आपने कभी यह नहीं पूछा कि आपको कोई काम, जो आप कर रहे हैं, फ़ायदा देगा या नहीं देगा।’’
‘‘मगर हमने पूछा तो था कि इस मुहिम में हमें कामयाबी होगी या नहीं।’’
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