उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘और मैंने अर्ज़ की थी कि होगी।’’
‘‘तो इससे हमारा फायदा होगा, यही तो इसके मायने है।’’
‘‘नहीं हुज़ूर, इसका यह मतलब नहीं। न ही आपने यह पूछा था। आपने तो मुहिम की कामयाबी के मुतअल्लिक पूछा था। मैने भी उतना ही बताया था।’’
‘‘मगर उसमें कामयाबी नहीं हो रही।’’
‘‘यह इस वजह से कि हज़ूर अभी अपनी सब ताकत इस्तेमाल नहीं कर रहे। इस मुहिम को कामयाब करने के लिए अभी और ज्यादा ज़राय इस्तेमाल करने होंगे।’’
‘‘हमने कौन-सी कसर छोड़ रखी है अपना मकसद हासिल करने में?’’
‘‘आप इसे हिन्दू-मुसलमान का सवाल बना इसमें सिर्फ मुसलमानों को ही शामिल कर रहे हैं। ऐसा मालूम होता है कि खुदा परवरदिगार इस इलाके को सर करने की इज्ज़त सिर्फ मुसलमानों को देना नहीं चाहता। आपको अपनी रियाया के दूसरे अंग को भी इस मुहिम में शामिल करना चाहिए।’’
‘‘मगर हम तो यह समझते हैं कि हम किसी हिन्दू को हिन्दुओं की आखिरी रियासत के तबाह होने के गुनाह से बाहर रखें। क्योंकि हमने यह फैसला किया हुआ है कि मेवाड़ की ईंट से ईंट बजा देंगे।’’
‘‘मगर जहाँपनाह! गुनाह या सवाब तो अपने करने से होता है। यदि कोई दूसरा उससे कराए तो वह उसका ज़िम्मेदार नहीं होता। कभी यह भी होता है कि कोई गुनाह कोई जबरदस्त हस्ती कराती है तो उसका नफा-नुकसान जबरदस्त शख्स को ही होता है। कभी इससे उलट भी होता है। कोई शख्स किसी किस्म का सवाब का काम करना चाहता है, मगर उसे वह क्यों किया जाए, नहीं जानता। यह इस अच्छे काम को गुनाह में भी बदल सकता है।’’
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