उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
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प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘मैं एक मुसलमान हूँ और किसी मुल्क की हकूमत हाथ में लेकर यह अपना फ़र्ज मानता हूँ कि उसके बाशिन्दों को इसलाम के नूर से पुर करूँ।’’
‘‘हज़ूर! अगर वे अपनी मर्ज़ी से इसलाम मंज़ूर करते हैं तो इसका पुण्य-पाप उनको होगा और अगर आप बिना उनकी मर्ज़ी के उनको इसलाम मंजूर करने पर मजबूर करते हैं तो यह हर हालत में गुनाह ही होगा। यह इसलाम या किसी भी मज़हब की बात हो सकती है। किसी को पकड़कर किसी राह पर ले जाना गुनाह है। इन्सान को मज़हब के मुतअल्लिक मजबूर करना गुनाह ही है।’’
‘‘मगर हम मजबूर नहीं करते। हम तो उनको इसलाम में शामिल होने से फायदा पहुँचाते हैं।’’
‘‘हज़ूर! यह ठीक है। मगर फायदा वह है जिसे वह फायदा समझें।
इसके मुतअल्लिक ज़बरदस्ती करना ठीक नहीं।’’
‘‘मगर हमारे मुल्ला लोग तो कर सकते हैं।’’
‘‘ऐसा करने वाले मुल्लाओं को कैद कर लेना चाहिए। वे मज़बूर कर या फुसलाकर कोई अमल कराते हैं तो यह गुनाह ही है।’’
‘‘तो इस वक्त सब मुल्ला जो कुछ कर रहे हैं और हम उन मुल्ला-मौलानाओं को वह सब करने से मना नहीं करते तो हम गुनाह कर रहे हैं?’’
‘‘मुझे कुछ ऐसा ही समझ में आ रहा है।’’
‘‘यह तुम गुस्ताखी नहीं कर रहे क्या?’’
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