उपन्यास >> प्रारब्ध और पुरुषार्थ प्रारब्ध और पुरुषार्थगुरुदत्त
|
47 पाठक हैं |
प्रथम उपन्यास ‘‘स्वाधीनता के पथ पर’’ से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं।
‘‘हज़ूर! नहीं। आपको गलती करने से रोकना गुस्ताखी नहीं, बल्कि आपकी खिदमत है।’’
‘‘हम इसे मुखालिफ़त समझते हैं।’’
‘‘तो आप भूल कर रहे हैं। मैं आपकी मुखालिफ़त नहीं कर रहा। आपकी खिदमत अदा कर रहा हूँ।’’
‘‘बहुत खूब! बगावत को खिदमत करना कह रहे हो।’’
‘‘मैं अपनी अन्तरात्मा से आपकी खिदमत ही कर रहा हूँ और उसका पुण्य मुझे मिलेगा।’’
‘‘ठीक है। हम इसे गुनाह समझते हैं और इसकी सज़ा तुम्हें देते हैं।’’
इतना कह अकबर ने ताली बजाई। उसकी पीठ के पीछे एक संगमरमर की जाली थी। उसके पीछे से आवाज आई, ‘‘ठहरिए।’’
विभूतिचरण का ध्यान उधर नहीं गया था। वह पहचान गया कि यह एक औरत की आवाज़ है। सम्भव है कि यह महारानी की आवाज़ हो।
ताली का शब्द सुन एक दरबान दीवानखाने में आया। मगर जाली के पीछे की आवाज के अनुरूप ही शहंशाह ने दरबान को कह दिया, ‘‘बाहर ठहरो।’’
दरबान दीवानखाने से बाहर निकल गया।
|